Wednesday, December 3, 2008

नेता िरलीफ फंड


सौरभ
हमारे देश के नेताओं में नैितकता कूट-कूट कर भरी हुई है। एेसा नहीं लगता अापको। अपने गृह मंॊी िशवराज पािटल, महाराष्टऱ के गृह मंॊी अार अार पािटल और मुख्यमंॊी िवलासराव देशमुख के उदाहरण देख कर भी अापको यकीन नहीं हो रहा। मुंबई पर हुए अातंकी हमलो से ये इतने अाहत हुए िक नैितक िजम्मेदारी लेते हुए इन लोगों ने अपने पद से इस्तीफा दे िदया। सवाल है नैितकता का तो इन लोगों ने तो अपना धमॆ िनभा िदया। पर भाई मेरे राजनीित का भी तो कुछ तकाजा होता है। अब इनके घरवाले क्या खाएंगे। ये तो बेरोजगार हो गए न। हमें इनके िलए कुछ सोचना चािहए। चिलए एक एेसा फंड बनाएं िजसका नेक उद्देश्य एेसे नैितक नेताओं के बेरोजगार हो जाने के बाद पेंशन देने के काम अाए। इसका नाम हो सकता है नेता िरलीफ फंड या एेसा ही कुछ। अाप भी कुछ नाम सजेस्ट कर सकते हैं। इस फंड में वैसे ही दान स्वीकार िकए जाएंगे जो नैितक तरीके से कमाए न गए हों। घूस की अिधक रािश, इनकम टैक्स की चोरी से बचाया गया धन, सिवॆस टैक्स और तमाम पऱकार के टैक्स की चोरी से बचाए धन इसमें जमा कराए जा सकते हैं। यहां यह बताना जरूरी है िक यिद यह धन नैितक तरीके से कमाया गया होगा तो इन्हें हज्म ही नहीं होगा न। हमें इनकी सेहत का ध्यान भी तो रखना है। एेसा न हो िक हम पैसे तो दे दें, पर सारा पैसा पेट खराब होने की गोली खरीदने में ही बबाॆद हो जाए। भले ही ये नेता हमारा ध्यान न रखते हों, पर हमें तो इनका पूरा ध्यान रखना है न। देिखए न हमारे स्टेशन, हमारे बाजार और हमारी सड़कें िकतनी भी असुरिक्षत हों, पर हमारे नेताओं को तो पूरी सुरक्शा चािहए। भई चािहए क्यों नहीं, ये देश को चलाते हैं, हमारे पैसे को सही जगह इन्वेस्ट करते हैं,िवकास करते हैं। इन्हें सुरक्षा नहीं िमलेगी तो क्या िरक्शा चलानेवाले को िमलेगी। वह अहमक क्या देश चलाता है। इसी िलए तो हमारे अाधे से ज्यादा ब्लैक कैट कमांडो इनकी ही सुरक्षा में लगे रहते है।
मेरे िवचार से एक फंड एेसा भी बनना चािहए िजसमें एेसे लोगों को धन देने के िलए व्यवस्था हो जो धमाकों, बाढ़, भूकंप और इसी तरह की दूसरी अापित्तयों में राहत के तौर पर घोषणा करते हैं। इसकी सबसे ज्यादा जरूरत गुजरात के मुख्यमंॊी नरेंदऱ मोदी को हो सकती है। एेसे मौकों पर सबसे बड़ी घोषणा वही करते हैं। अपने लालू जी को भी इस फंड से फायदा हो जाता है। पऱधानमंॊी जी के राहत कोष की िडमांड अब काफी कम हो गई है। इसका ठेका भी िभन्न िभन्न संस्थाओं ने ले िलया है। एेसे में हम भी एक कोष का गठन कर सकते हैं। इसका नाम घोषणा फंड रखा जा सकता है। ये नाम िसफॆ पऱस्तािवत हैं। लेिकन लोगों से गुजािरश है िक इस फंड में पसीने की कमाई का ही पैसा डालें। क्योंिक पता नहीं कब यह हमारे पिरवावर वालों को िमले। जब भी िमले तो कम से कम यह एहसास तो हो िक इसमें बेईमानी नहीं िमली हुई।

Wednesday, November 26, 2008

हकीकत से सामना

अक्सर बस में सफर करते कुछ एेसी चीजें देखने सुनने को िमल जाती हैं िजससे समाज का चिरतऱ अाईने की नजर अाने लगता है। िदल्ली से नोएडा ३२३ नंबर की बस में जब िकसी तरह घुस कर लोहे की पाइप से लटक गया और सांस लेने की कोिशश करने लगा तो देखा िक सामने सीट पर एक काफी बुजुगॆ व्यिक्त उंघ रहे हैं। िसर में कई जगह से िसली हुई टोपी, काफी पुराना स्वेटर और अपनी उमऱ जी चुका चूजा पहने हुए थे। हाथ में सांईं बाबा की अंगूठी पहन रखी थी। पास में एक छोटा सा झोला था। मैं उन्हें देख रहा था। उस वक्त मेरी दादी मुझे याद अाईं, जो अब नहीं हैं। उनकी ही तरह झुिरॆयां थीं। उमऱ के साथ त्वचा का िसकुड़ जाना मैंने उनमें देखा था। वैसा ही इन बाबा के हाथों में देखा। मन में ख्याल अाया िक इस उमऱ तक िजंदा रहा तो मेरी भी यही दशा होगी। बस में गाना बज रहा था न कजरे की धार न मोितयों का हार न कोई िकया श्रंगार िफर भी िकतनी सुंदर हो.... बस टोल िबऱज होते हुए नोएडा अाई तो कुछ सवार उतरे। अब सही से सांस ले पा रहा था। इतने में ही उस बुजुगॆ की नींद खुली और उन्होंने बड़ी धीमी अावाज में कुछ कहा। मैंने ध्यान िदया, तो उन्होंने िफर कहा, १२-२२ कहां है। मैंने कहा अभी दूर है। बस में लोगों का चढ़ना-उतरना जारी था। थोड़ी ही देर में उन्होंने मुझसे कहा वृद्ध लोगों का अाश्रम कहां है। यह बात कहते-कहते उनका गला रुंध गया। मुझे मालूम नहीं था िक वह कहां है। मैंने अन्य याितऱयों और बस के कंडक्टर से जानना चाहा, पर िकसी को कुछ नहीं मालूम था। उन्होंने िफर कहा सरकारी स्कूल के पास है सेक्टर २२ में। मैंने उनसे कहा िक अाप सेक्टर २२ में उतर जाइये िफर िकसी से पूछ लीिजएगा। एक बार को मेरा मन िकया िक मैं भी उतर लूं और िजतनी मदद हो सके कर दूं। पर कर न पाया। मेरे साथ कुछ सामान था और अॉिफस समय पर पहुंचने का दबाव। इन िदनों मंदी ने इस कदर डरा रखा है िक लगता है िक हो सकता है समय पर न पहुंचा तो क्या होगा? खैर वह तो उतर गए सेक्टर २२ में, पर मैं सोचता रहा, अात्म मंथन करता रहा। पहले िसफॆ समाचार सुनता था िक अाज कल के बच्चे अपने माता-िपता को वृद्धा अाश्रम में रहने भेज देते हैं। पतऱकािरता के अाठ वषॆ के अनुभव में बड़े शहर की इस हकीकत से पहली बार सामना हुअा था।

Friday, October 31, 2008

राज़ की नज़रों में कैसा भारत


कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। एक है एक है ।हम भी मानते और शायद आप भी मानते होंगे। अब जरा राज़ ठाकरे की नज़र में भविष्य के भारत पर नज़र डालते है।
महाराष्ट एक देश होगा। जहाँ की रास्ट्रीय भाषा मराठी होगी। वहां हिन्दी फिल्में नही बनेगी। हिन्दी बोलेंगे तो सज़ा मिलेगी.महाराष्ट में जाने की लिए वीसा की जरूररत होगी। प्रधानमंत्री राज ही होंगे। टाटा, अम्बानी सबको वहां से हटना होगा। राज़ की नज़रों में देश का अन्य हिस्सा इस प्रकर होगा।
ताजमहल सिर्फ़ उत्तर प्रदेश के लोग ही देख सकेंगे।
दिल्ली में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दिल्ली का ही होना चाहिए।
सरे पंजाबी पंजाब में रहेंगे।
झारखण्ड se लोहा दुसरे राज्य में नही जाएगा।
दक्षिण के राज्य अपने मसाले अपने पास ही रखेंगे।यू पी और बिहार अपने आनाजो को बहार नही भेजेंगे।
गणेश की पूजा अन्य राज़यों में प्रतिबंधित होगा।
कश्मीरीयों की मांगे राज़ की नज़रों में जायज होना चाहिये ,वे भी तो चाहते है है की दल झील पर उनका ही हक़ रहे। क्या ग़लत है। है न राज़ भाई साहब ..................................................

Thursday, October 2, 2008

इस मूितॆ के पऱायोजक हैं एयरटेल

सामुदाियक पूजा के बाद पूजा सेिलबऱेशन का रूप लेता जा रहा है। अब दुगाॆ पूजा को ही लें। घर-घर में मनाया जानेवाला यह त्योहार इतना वृहद रूप ले चुका है िक अब पूजा गौण चुकी है और इसकी जगह भव्यवता ने ले ली है। हर ओर इस बात का शोर है िक कहां िकतना अिधक खचॆ हुअा है। यह अब त्योहार न होकर सेिलबऱेशन बन गया है। रात भर होने वाले कायॆकरम और सज धज कर घूमने और मस्ती करने का एक मौका। पहले घर-घर में यह त्योहार मनाया जाता था। सागदी से। कोई शोर-गुल नहीं। िसफॆ भिक्त औऱ अाराधना। ठाकुरों की हवेिलयों के िनकलकर जब देवी दुगाॆ सावजिनन हुईं तो उसका एक अपना महत्व था। पर वह महत्व घटता चला गया। इसे भी बाजार ने हाईजैक कर िलया है। कहीं कोई पंडाल एयरटेल है, तो कोई वोडाफोन का। कहीं धुनष माकाॆ तेल पऱायोजक है तो कहीं कोलाकोला। वह िदन भी दूर नहीं जब शराब के िवग्यापन भी िदखने लगें। जैसे ही अाप पूजा पंडाल में दािखल होगें, तो देवी की मूितॆ के नीचे िलखा िमलेगा इस मूितॆ के पऱायोजक हैं मैक्डोवल या एेसा ही कुछ। पंडाल के रंग िबरंगे कपड़ों पर भद्दे-भद्दे बैनर लगे िमलेंगे।
कोलकाता में तो इस साल दुगाॆ पूजा ने कारपोरेट रूप अिख्तयार कर िलया है। वहां के कुछ पूजा पंडालों के मैनेजमेंट का िजम्मा मल्टीनेशनल कंपिनयों ने ले िलया है। धीरे-धीरे दुगाॆ पूजा के रूप में िकतना पिरवतॆन हुअा है यह तो हमारी अांखों के सामने है, पर एेसा ही चलता रहा तो अागे क्या होगा कोई नहीं बता सकता।

Wednesday, October 1, 2008

सामुदायिक पूजा का नया चलन

एेसा पहली बार नहीं हुअा है िक िकसी धािमॆक स्थल पर कुचलकर लोगों की मौत हुई हो। हम भले ही पऱशासन को कोस लें, तरह-तरह की दलीलें दे लें। धािमॆक स्थलों पर अत्यिधक भीड़ जुटने के पीछे लोगों की बदल रही मानिसकता को नजरअंदाज नहीं िकया जा सकता है। िहंदू धमॆ में सामुदाियक पूजा की अवधारणा नहीं रही है। इसी कारण हर िहंदू के घर में पूजा स्थल होता है और अांगन में तुलसी का पौधा। अांगन में तुलसी का पौधा भले ही हो पर छोटा सा ही सही पूजा का स्थान तो अवश्य होता है। बदलते समय के साथ िहंदू धमॆ में भी सामुदाियक पूजा के पऱित लोगों का रुझान बढ़ता जा रहा है।
मुझे याद है िक पहले हमारे पूरे शहर से चार लोग माता वैष्णो देवी के दशॆन करने जाते थे, उस वक्त लोग कहा करते थे,िक फलां व्यिक्त वैष्णो देवी गए थे, वह भी िकसी खास मकसद से। अब सुनने में अाता है िक पूरा मुहल्ला ही उठ कर वैष्णो देवी गया है। यह फकॆ धीरे-धीरे अाया है। इस देश में पहले मुसलमानों का अाकरणमण हुअा, उन्होंने राज िकया और उसके बाद अंगऱेजों ने यहां शासन िकया। मुसिलम और ईसाई दोनों धमोॆं में सामुदाियक पूजा यानी कम्युिनटी इबादत या पऱेयर की अवधारणा है। मुसिलम समुदाय के लोग हर िदन में पाच बार मसिजद जाकर नमाज पढ़ते है। उनकी यह परंपरा है। उसी तरह ईसाई भी हर रिववार को चचॆ जाते हैं। यह ईश्वर के पऱित अास्था का उनका तरीका है। इसके िलए उन्होंने अपनी अपनी व्यवस्थाएं कर रखीं हैं। िहंदू धमॆ में एेसी कोई व्यवस्था नहीं थी। हर घर मंिदर और पत्थर देवता के रूप में पूजे जाते हैं। धीरे-धीरे अवधारणाएं बदलने लगीं। अास्था का भी धऱुवीकरण होने लगा। इसी धऱुवीकरण के कारण कुछ मंिदर और धािमॆक स्थलों को वह दजाॆ पऱाप्त हो गया मानो जो वहां गया नहीं उसका जीवन बेकार। बात यहां तक तो समझ में अाती है पर इसके अागे जो िवकृितयां अाईं उसने अास्था और धमॆ को बाजार के करीब ला िदया। जैसे ही अाप िकसी बहुत पिवतऱ या जागृत मंिदर की सीिढ़यां चढ़ते हैं, वैसे ही अापको एहसास होगा िक अापकी अास्था का ध्यान केंिदऱत करने के कई कारक वहां अापका इंतजार कर रहे हैं। पहली सीढ़ी चढते ही अापको यह डर सताने लगेगा िक अापका चप्पल या जूता कोई चुरा ले। इसके िलए अलग व्यवस्था। छोटे-छोटे बच्चे से लेकर युवा तक इस पुनीत कायॆ में अापका सहयोग करते हैं। दूसरी सीढ़ी पर पऱसाद का बाजार। और जब अाप मंिदर में अपना पऱसाद चढ़ाएंगे तो पुजारी की दिक्षणा। यहां भी क्लास का ख्याल रखा जाता है। कोई वीअाईपी होता , तो कोई वीवीअाईपी। सामान्य कैटेगरी की तो कोई पूछ ही नहीं। चामंडा देवी मंिदर में भी एेसी ही कोई ्ाशंका जताई जा रही है।
इस िवषय पर दूसरी पोस्ट जल्द ही।

Thursday, September 25, 2008

मुझे शेर बहुत पसंद हैं

मुझे शेर बहुत पसंद हैं। एक बार बचपन में सकॆस में और कोलकाता और रांची के िचिड़याघरों में देखा है। काफी कुछ पढ़ा है और िडस्कवरी में भी उनके बारे में िदए जानेवाले कायॆकऱम देखे हैं। उनके िशकार करने की कहािनयां सुनी हैं। उनकी गजॆना के बारे में सुना है। सुंदर अायल वाले ये शानदार बड़े िवडाल अब खतरे में हैं। िजस पऱकार राजशाही खत्म होती जा रही है उसी पऱकार जंगल के राजा भी खत्म होते जा रहे हैं। पर मेरी पऱाथॆना है िक ये राजशाजी जीिवत रहे। जंगलों में ये िवडाल अपनी शानो-शौकत से साथ रहें। पर यह तभी संभव है जब हम औऱ अाप जैसे सभी लोग यह चाहें। यिद हम चाहते हैं हमारी अानेवाली पीिढ़यां िचिड़याघरों में ही सही इन बड़े िवडालों को देखें तो इसके िलए जरूरी है िक हम चचेत हो जाएं।
हम अपने घरों में अपने बच्चों को इनके बारे में बताएं। सरकार भले ही इनके संरक्षण के िलए पिरयोजनाएं बनाती है पर उससे अाम लोगों की भागीदारी सुिनश्चत नहीं हो पाती। अाम लोगों को भी जागरूक होना होगा। पशु-पिक्षयों के संगरक्षण का ठेका लेने वाले एनजीओ को धरातल पर काम करना होगा। यह तभी संभव है जब अापके िदल में इन जानवरों के पऱित पऱेम हो। अाप इनसे उसी पऱकार प्यार करें जैसा अपने बच्चों और अन्य िपऱयजनों से करते हैं। घरों में सास-बहु सीिरयलों की कुिटस सास और बहुओं की चतुरचालों की चचाॆ के बदले इन जानवरों की चचाॆ करें। िजस िदन अाम लोगों के घरों में जानवरों के बारे में चचाॆ शुरू हो जाएगी उस िदन वाकई हम जागरूक हो जाएंगे। और नहीं तो तैयार रहें हम अपने बच्चों से कहेंगे.. देखो बेटा ये शेर एेसा होता था। उसके चार पैर होते थे, फलां, फलां...
इसिलए मैं िफर कहता हूं अाप कुछ न करें िसफॆ इनके प्यार करें, इनके बारे में सोचें, तो हो सकता है एक िदन अाप जंगल के इस राजा के काम अा जाएं। इनके नाखूनों, खाल और हिड्डयों से बननेवाले पदाथोॆं का कारोबार करनेवाले और इनके िशकािरयों के िखलाफ खड़े हो जाएं।

Wednesday, September 24, 2008

िसफॆ इंकलाब िजंदाबाद करने से कुछ हािसल नहीं होगा

मजदूरों और मािलकों का नाता सिदयों से एेसा ही चला अा रहा है िजसमें िपसता मजदूर ही है। भले ही सबसे ज्यादा नुसकान मजदूरों को उठाना पड़ता है पर िफर भी बीच-बीच में एेसी घटनाएं होती हैं जो यह सोचने पर मजबूर करती हैं िक अािखर इसका अंत कहां है। गऱेटर नोएडा में बहुराष्टीय कंपनी के सीईओ और मजदूरों के संघषॆ में हुई मौत के बाद एक बार िफर से यह बहस का मुद्दा बना है िक मजदूरों और मािलकों के बीच का िरश्ता कैसा हो। इस पूरी घटना में सबसे अहम पक्ष श्रम मंतऱी का बयान है। घटना के बारे मे उनकी पहली पऱितकऱया से उद्योग जगत में खलबली मच गई। दूसरे िदन उन्हीं के दबाव में माफी मांगना यह िसद्ध करता है िक अाप चाहे लाख ईच्छा रखते हों या िफर अापके िदलों में मजदूरों के िलए सहानुभूित हो अाप कुछ नहीं कर सकते। ग्लोबलाइजेशन के दौर में बाजार ही सबसे बड़ी ताकत है। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो कहीं एेसा नहीं िदखाई देता िक मजदूरों के िहतों की बात होती हो। श्रम मंतऱी की लाचारी से यह तो साफ है िक सरकार इस मामले में कुछ करने नहीं जा रही है।
यहां कुछ सवाल लािजमी हैं। अािखर क्यों कोई उद्योगपित अपना पैसा लगाकर धमाॆथॆ कायॆ करे? यह बात सभी को समझनी होगी िक कोई भी उद्योगपित खैरात बांटने के िलए उद्योग नहीं लगाता और बाजार में पऱितस्पधाॆ इतनी अिधक है िक कोई खैरात बांटकर िटक भी नहीं सकता। िकसी भी उद्योगपित को खाने के लाले नहीं होते, दो जून की रोटी के बारे में मजदूरों को ही सोचना पड़ता है। इस कॉन्टऱास्ट के बीच यह सोचना होगा िक अािखर वह कौन सा फैक्टर है जो इस गितरोध को दूर कर सकता है। चाहे िसंगूर हो या िफर झारखंड की कोयल-कारो पिरयोजना। सबके पीछे यही कॉन्िफल्क्ट काम करता है। यह कॉन्िफल्क्ट िसफॆ मजदूरों और मािलकों के बीच नहीं है। यह एक ही कंपनी में काम करनेवाले ऊंचे पदों पर अासीन अिधकािरयों और कमॆचािरयों के बीच है। िजनकी सैलरी में एक शून्य का अंतर होता है। वह शून्य ही सारे फसाद की जड़ है। इसी शून्य से कोई िवचार उभरे को ही इस समस्या का कोई समाधान िनकल सकता है। िसफॆ इंकलाब िजंदाबाद करने से कुछ हािसल नहीं होगा, इसके िलए जरूरत है िक नए िसरे से कोई हल िनकाला जाए।

Tuesday, September 23, 2008

लूट की मानिसकता

िबहार में बाढ़ का पानी भले ही अब औऱ न चढ़ रहा हो, पर समस्याएं तो बढ़ ही रही हैं। जो कभी जमीन के मािलक थे अाज बेघर बंजारा की िजंदगी िबता रहे हैं। बाढ़ से जुड़ी एक बड़ी िदलचस्प घटना का िजकऱ मैं यहां करना चाहूंगा। मेरे एक िरश्तेदार हैं। कॉलेज में जीव िवग्यान पढ़ाते हैं। उन्होंने ही यह वाक्या सुनाया था। वह कॉलेज से िसलिसले में उत्तर िबहार गए थे। िजस पिरिचत के घऱ वह ठहरे थे, वह िबहार सरकार के मुलािजम थे। उस वक्त भी बाढ़ अाई थी और राहत कायॆ जोरों पर चला था। अचानक उन्होंने देखा िक एक कमरे में कुछ पैकेट के ढेर लगे थे। उन्हें िजग्यासा हुई तो उन्होंने देखा िक वह बाढ़ राहत सामगऱी थी। िजसमें चूड़ा, गुड़़, चना जैसे कुछ खाद्य पदाथॆ थे। उन्होंने उनके बेटे से पूछा िक यह सब क्या है, तो उनके बेटे ने उन्हें इशारा कर कहा िक बाद में बताऊंगा। खैर जब वह िवदा लेने को हुए तो उन्हें िगफ्ट के तौर पर वही कुछ पैकेट िदया गया।
चूंक वह पैकेट खुले बाजार मे िबक नहीं सकता। उस पर बाढ़ राहत सामगऱी िलखा होता है और उसमें कुछ खास सामगऱी भी नहीं होती। कई पैकेट को खोल कर जमा भी िकया जाए तो उसका बाजार मूल्य बहुत ज्यादा नहीं होता। घर के लोग उस सामगऱी को खाते भी नहीं। उन पैकेटों को िसफॆ इसिलए घर ले अाया गया िक कोई अाए तो उन्हें िगफ्ट िकया जा सके। यह मानिसकता िकतनी ओछी है। अपने इस्तेमाल का न होते हुए भी उसके सही हकदारों को वंिचत करते हुए अिधकारी कमॆचारी बाढ़ राहत सामगऱी के पैकेट घर ले अाते हैं। जरा सोिचए िक उनपैकेटों से िकतनों की जानें बच गई होतीं। िकतने लोगों को अासरा हुअा होता। िकतने बच्चों को रात भर भूख से िबलिबलाना नहीं पड़ता। पर यह सोचने के िलए संवेदनशीलता की जरूरत है। यही संवेदना तो मरती जा रही है। बाढ़, भूकंप जैसी पऱाकृितक अापदाएं भी अामदनी का जिरया बन जाती हैं। भले ही िबहार को केंदऱ सरकार की तरफ से १००० करोड़ की रािश िमली है, हजारों स्वंयसेवी संगठनों और अन्य संस्थाओं से भी सहयोग िमला है, पर देखनेवाली बात है िक यह िकतने लोगों तक पहुंचता है।

Thursday, September 18, 2008

Friday, September 12, 2008

मौसम में घुलता है उमंग-तरंग

अाइए अाज अपने शहर से रू-ब-रू कराता हूं। झारखंड की राजधानी रांची। छोटी-छोटी पहािड़यों के िघरी पऱकृित की गोद में बसी छोटी सी नगरी। यहां का मौसम इसकी सबसे बड़ी खािसयत है। हर मौसम का अपना िमजाज है। जून औऱ जुलाई की घनघोर बािरश चुपके से सुनहरी धूप िलए शरद की ओर से चल देती है। लोग कह उठते हैं दुगाॆ पूजा का मौसम अा गया। बािरश से लबालब भरे तालाब और हिरयाली से भरे पेड़ देवी दुगाॆ से स्वागत में तैयार रहते हैं। प.बंगाल से सटा होने के कारण झारखंड में भी नवरातऱ बड़ी श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस वक्त वहां के मौसम में ही उमंग और तरंग घुला होता है। १३०० िकलोमीटर दूर नोएडा-गािजयाबाद में रहकर मैं उन चीजों को बहुत िमस कर रहा हूं। रांची के कुछ पूजा पंडालों की भव्यता का बखान नहीं िकया जा सकता। कलाकारों की मेहनत और पूजा कमेिटयों के सदस्यों की लगन तब साथॆक होती है जब भक्तों का हुजूम शाम से सुबह तक माता के दशॆन करता है। हल्के गुलाबी ठंड की चादर ओढ़े शरद धीरे से शीत ऋतु की ओर बढ़ जाता है। रांची में तापमान चाहे िजतना नीचे चला जाए, धूप में बड़ी राहत िमलती है। सबह सात बजे से शाम के पांच बजे तक ठंड को पास नहीं फटकने देती है यह धूप। इसके पीछे वहां के वायुमंडल में धूलकणों का कम होना है। राजधानी बनने के बाद पऱदूषण थोड़ा तो बढ़ा है पर महानगरों के स्तर तक पहुंचने शायद काफी वषॆ लगें। मैं यह कामना नहीं करता िक पऱदूषण का स्तर महानगरों के स्तर तक पहुंचे पर धीरे-धीरे महानगरीय संस्कृित रांची जैसे बड़े गांव को भी अपनी चपेट में ले रही है। िरलायंस माटॆ औऱ िबग बाजार का खुलना इसका संकेत मातऱ है। इससे पहले िक रांची का नैसिगॆक सौंदयॆ िबगड़े उसे बचाने का उपाय िकए जाने चािहए। पर झारखंड की िनदॆलीय सरकार से एेसी उम्मीद मुझे नहीं है। इससे पहले िक खूबसूरती को िकसी की नजर लग जाए अाप एक बार वहां जाकर पऱकृित के बीच के रोमांच को महसूस कर सकते हैं। अाप यिद रेल से सफर करेंगे तो जैसे ही झारखंड की सीमा में रेल के पिहए पऱवेश करेंगे अापको समझ में अा जाएगा िक अाप झारखंड में हैं। पहािड़यों के बीच से गुजरती टऱेन से अापको एेसी हिरयाली िदखेगी िजसे देख अाप पऱफुिल्लत हो जाएंगे। रेल यिद शाम को िकसी जंगल से गुजरे तो अासपास अापको झािड़यों और पेड़ों पर गजब की रोशनी िदखाई देगी। अाप यकीन नहीं करेंगे यह रोशनी लाखों जुगनुओं से अाती है। जुगनुओं की यह रोशनी िकसी भी चाइनीज लाइट से ज्यादा अाकषॆक लगती है। पऱकृितपऱेिमयों के िलए इसे देखना एक गजब का अनुभव होगा। और भी बहुत कुछ है रांची में। अागे बात होगी।

Thursday, September 11, 2008

खबिरया चैनलों की बेशमीॆ

िपछले दो-तीन िदनों में खबिरया चैनलों को एक मसालेदार खबर िमली। खबर भी क्या, दुिनया खत्म होनेवाली है। तकरीबन सभी चैनलों ने खूब ढोल पीटे। फलां िदन महापऱलय अाएगा, दुिनया खत्म हो जाएगी। टीअारपी का खेल खेलते वक्त इन्हें इतनी भी शमॆ नहीं अाती िक लाखों लोग जो िनगाहें गड़ाए टीवी पर िदखाई जाने वाली खबरों को सच मानते हैं उन्हें ये धोखा दे रहे हैं। यह धोखा उस िवश्वास को िदया जाता है जो दशकों पहले पतऱकारों की िबरादरी ने बनाई है, यह धोखा उस चौथे स्तंभ को िदया जा रहा िजस पर भारत जैसे सबसे देश का लोकतंतऱ िटका है। कुछ तो शमॆ करें एेसी खबरें िदखाने से पहले। महापऱलय की जो टीअारपी बटोरी गई वह अथॆ की दृिष्ट से भले ही फायदेमंद सािबत हो पर िवश्वास के मामले में काफी नुकसानदेह। जहां महापऱलय हो रहा था या हो रहा है वहां की खबरें िदखाना या उनके िलए कुछ करना इनका धमॆ नहीं। िबहार के पांच िजले पानी से भरे हैं, लाखों लोग बेघर हो गए हैं, करोड़ों की िनजी और सरकारी संपित्त का नुकासन हो गया है, यह खबर नहीं बनती। क्योंिक इससे टीअारपी नहीं जुड़ा हुअा है। मीिडया के पऱबुद्ध लोगों के िलए यह बहुत बड़ा पऱश्न है िक क्या मीिडया िसफॆ बाजार के हाथों की कठपुतली बन कर रह जाएगी। तमाम िगरावटों के बाद भी मैंने मीिडया की ताकत देखी और महसूस की है। अागे भी एेसा ही रहे और हम पहरुओं की भूिमका अदा करते रहें तो इसके िलए हमें समय रहते सोचना होगा। भले ही समझौता न करनेवाले अखबारों का वजूद िमटता जा रहा है पर अाज भी उनका नाम अादर के साथ िलया जाता है। जरूरत है इस सम्मान को बचाने की।

Wednesday, September 10, 2008

महाराष्टऱ कोई देश नहीं

अपनी भाषा से पऱेम रखना और उसके पऱति संवेदनशील होना अच्छी बात है। महाराष्टऒ नविनमाॆण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे को भी अपनी भाषा और क्षेतऱ से प्यार है। लेिकन दूसरी भाषाओं के पऱति उनका रवैया देख यही लगता है िक उन्हें भाषा और क्षेतऱ से कुछ खास लेना-देना नहीं है। खासकर िबहार और उत्तर पऱदेश के लोग तो उन्हें फूटी अांख नहीं सुहा रहे। मुझे तो यह लगता है िक उन्होंने महाराष्टऱ को एक देश मान िलया है। िजसकी अपनी राष्टऱभाषा है और वह है मराठी। जहां तक मुझे ध्यान है भारत की राष्टऱभाषा िहंदी है। पूरे भारत में यही भाषा सबसे ज्यादा बोली और समझी जाती है। अब राज ठाकरे को यह बात कौन समझाए िक कुंए में रहनेवाले मेंढक उसे ही समुदऱ समझता है। राज शायद कभी महाराष्टऱ से बाहर नहीं गए। तभी उन्हें लगता है िक भगवान गणेश िसफॆ महाराष्टऱ में पूजे जाते हैं मराठी िसफॆ महाराष्टऱ में बोली जाती है। िबहार में मैं कई एेसे मराठी परिवारों को जानता हूं जो िबहार में भी मराठी बोलते हैं। पर वहां कोई हाय तौबा नहीं होती। अभी िबहार, झारखंड, यूपी, एनसीअार सिहत पूरी िहंदी बेल्ट में गणपित की पूजा धूमधाम से मनाई गई। तो क्या अब राज ठाकरे इस पर भी पऱितबंध लगाने की मांग करेंगे। अपनी राजनीित चमकाने के फेर में राज शायद यह बात भूल गए हैं िक इस देश के लोग भले ही तात्कािलक रूप से िकसी मुद्दे पर बहक जाते हैं, पर जब उनकी अांखें खुलती हैं तो उसे कहीं का नहीं छोड़ते। यह देश देश धमॆ, जाित और भाषा की विविधता लिए हुए है और यही उसकी सबसे बड़ी ताकत है। राज इस ताकत को कमजोर करने की कोशिश भले ही कर रहे हैं पर इसमें उन्हें बहुत सफलता नहीं मिलेगी। महाराष्टऱ विधानसभा की कुछ सीटों पर उनके उम्मीद्वार भले ही जीत जाएं और कुछ सीटों को जरूर पऱभावित कर दें पर इससे ज्यादा उनके हाथ कुछ भी नहीं अानेवाला। धीरे-धीरे जब भाषा का हथियार कुंद पड़ेगा तो उन्हें भी रोटी-रोजगार की बात करनी पड़ेगी। यही इस देश की सबसे बड़ी जरूरत है और अाजादी के बाद से अाज तक की सबसे बड़ी समस्या भी।

Thursday, August 28, 2008

बाढ़, खबर और पैसा

िबहार बाढ़ की चपेट में हैं। पहली बार नहीं एेसा नहीं हुअा है। कोसी पहले भी कहर बरपा चुकी है। इस बार रास्ता बदल िलया है। हुक्मरानोंं ने हवाई सवेॆॐण जरूरत कर िलया है, पर पानी कब तक उतरेगा और लोग कब तक यह अास लाए बैठे रहेंगे िक कोई नौका अाए और उन्हें बचा कर ले जाए। बाढ़ की िस्थ्त अचानक इतनी गंभीर तो हुई नहीं। चार िदन पहले मेरे एक िमॊ ने सूचना दी िक िबहार के उत्तरी इलाके पूरी तरह से बाढ़ की चपेट में अा चुके हैं करीब ७५ लाख लोग चपेट में हैं। मैंने उस िदन उसकी बात को गंभीरता से नहीं िलया।अाज जब पानी िसर के क्या घर से ऊपर से िनकल चुका है तो मेरे मन में यह बात अाई िक कैसे वहां फंसे लोग िजंदगी से जूझ रहे होंगे। यह बात वहीं समझ सकता है िजसने नजदीक से बाढ़ को झेला हो। मुझ जैसा पठार में रहनेवाला इनसान यह कतई नहीं समझ सकता िक बाढ़ की िवभीिषका क्या होती है। महीने तक पानी से िघरे रहने और दूर-दूर तक िसफॆ मटमैले पानी में जीवन की तलाश का क्या मोल है। बाढ़ की सूचना देते वक्त मेरे िमॊ की अांखे इस बात का थोड़ा सा एहसास करा रही थीं। पर पॊकार बन कर चीजों को तकॆ और तथ्य की तराजू में तोलने की अादत ने मुझे उसके सामने एक िनष्ठुर व्यिक्तत्व वाला व्यिक्त ही बना िदया। उसकी पीड़ा थी िक िदल्ली के अखबारों में खबरें उस तरह से नहीं अा पा रही हैं िजस तरह से अानी चािहए। मैंने उनसे कहा िक इस खबर में क्या स्टोरी बन रही है। यह खबर िदल्ली के अखबारों में नहीं िबकेगी। वह अखबारी दुिनया में नया है, इस कारण हो सकता है उसे मेरी बात बुरी लगी हो पर मैंने तो वही कहा जो बाजार का सच है। पर हां िजस िदन से िबहार के मुख्यमंॊी ने िदल्ली अाकर पऱधानमंॊी को ये बातें बताईं और पऱधानमंॊी नऔर सोिनया गांधी ने िबहार का दौरा कर िलया तो खबरें सुिखॆयों में अा गईं। खबर ही क्या कारुिणक कथाएं भी अाने लगीं िक कैसे लोग फंसे और चूड़ा खाकर िदन गुजार रहे हैं। एक हजार करोड़ की रािश तो दे दी गई पर लोगों को िमलेगा क्या? चूड़ा गुड़ या िफर सत्तू। इससे ज्यादा की तो मुझे उम्मीद नहीं। अापको हो बता दीिजए।

Sunday, July 27, 2008

धमाकों के बाद-1

इस ब्लॉग की शरुआत मैं एक ऐसे पोस्ट से करना चाहता था जो सकारात्मक चीज़ों को जन्म दे। पर समय पर किसी का जोर नहीं चलता है। बंगलुरु और अहमदाबाद में हुए धमाकों ने झकझोर दिया। झारखण्ड में रहते हुए नक्सली घटनाओं से रु-ब-रु कई बार हुआ। दो कौमों के बीच की रंजिश भी देखि और दोस्ती भी। कई बार दिल अन्दर से हिल जाता। पत्रकारिता का तकाजा था कि न चाहते हुए भी उन चीज़ों से जुरना परा। बन्दूक कि गोली यह नहीं देखती कि उस पर किसका नाम लिखा है। उसकी नाल जिस और रहेगी गोली उधर ही चलेगी। अब जब २४ घन्टे के अन्दर भारत के दो महत्वापूर्ण सिटी में धमाके हो चुके हैं और पुरा देश इस अन्देसे में है कि न जाने कब उनके शहर में बम फट जाए। तो ऐसे में यह डर कैसे दूर हो। क्या केन्द्र सरकार इया बात का आश्वाशन दे सकती कि है कि अब इस देश में और आतकी वारदात नहीं होगी। इसका सीधा जवाब है, नहीं। औरयह तब तक वही रहेगा जब तक देश कि राजनीति जिम्मेदार नहीं बन जाती। अपराधियों-माफियाओं कि मदद से चुनाव जीत कर आनेवाले नेताओं से हम उम्मीद भी क्या कर सकते है। जिस देश कि संसद में नोटों के बण्डल उछाले जा रहे हो, उन्हें भला इस बात कि क्या फिक्र कि जनता का हाल कैसा है। वह जिए या मरे। नोटों कि हरियाली से उनकी घरों कि शोभा होनी चाहिए। सवाल इस बात का नहीं कि इस हाल के लिए कौन जिम्मेदार है। सवाल इस बात का है कि आखिर क्यों है। ऐसा इसलिए है कि हम्मे से बहुतों नैन अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है। दूर से खरे हो कर राजनीति को गली दे देना और कोसना बहुत आसान है। हम और आप भी इस पतन के कारण हैं। हम आज भी जात-पात में बंधकर वोट दे आते हैं और उम्मीद करते हैं एक ऐसे समाज कि जहाँ चैन हो। जिस समाज में आधी आबादी भूखे पेट सोती हो वहां अमन चैन कि बात तो बेमानी ही है। जारी......................