Sunday, July 27, 2008

धमाकों के बाद-1

इस ब्लॉग की शरुआत मैं एक ऐसे पोस्ट से करना चाहता था जो सकारात्मक चीज़ों को जन्म दे। पर समय पर किसी का जोर नहीं चलता है। बंगलुरु और अहमदाबाद में हुए धमाकों ने झकझोर दिया। झारखण्ड में रहते हुए नक्सली घटनाओं से रु-ब-रु कई बार हुआ। दो कौमों के बीच की रंजिश भी देखि और दोस्ती भी। कई बार दिल अन्दर से हिल जाता। पत्रकारिता का तकाजा था कि न चाहते हुए भी उन चीज़ों से जुरना परा। बन्दूक कि गोली यह नहीं देखती कि उस पर किसका नाम लिखा है। उसकी नाल जिस और रहेगी गोली उधर ही चलेगी। अब जब २४ घन्टे के अन्दर भारत के दो महत्वापूर्ण सिटी में धमाके हो चुके हैं और पुरा देश इस अन्देसे में है कि न जाने कब उनके शहर में बम फट जाए। तो ऐसे में यह डर कैसे दूर हो। क्या केन्द्र सरकार इया बात का आश्वाशन दे सकती कि है कि अब इस देश में और आतकी वारदात नहीं होगी। इसका सीधा जवाब है, नहीं। औरयह तब तक वही रहेगा जब तक देश कि राजनीति जिम्मेदार नहीं बन जाती। अपराधियों-माफियाओं कि मदद से चुनाव जीत कर आनेवाले नेताओं से हम उम्मीद भी क्या कर सकते है। जिस देश कि संसद में नोटों के बण्डल उछाले जा रहे हो, उन्हें भला इस बात कि क्या फिक्र कि जनता का हाल कैसा है। वह जिए या मरे। नोटों कि हरियाली से उनकी घरों कि शोभा होनी चाहिए। सवाल इस बात का नहीं कि इस हाल के लिए कौन जिम्मेदार है। सवाल इस बात का है कि आखिर क्यों है। ऐसा इसलिए है कि हम्मे से बहुतों नैन अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है। दूर से खरे हो कर राजनीति को गली दे देना और कोसना बहुत आसान है। हम और आप भी इस पतन के कारण हैं। हम आज भी जात-पात में बंधकर वोट दे आते हैं और उम्मीद करते हैं एक ऐसे समाज कि जहाँ चैन हो। जिस समाज में आधी आबादी भूखे पेट सोती हो वहां अमन चैन कि बात तो बेमानी ही है। जारी......................